दो या तीन
मत्ती 18:15-20
प्रभु यीशु मसीह ने विश्वासियों से संबंधित मुद्दों को सुलझाने का एक नया तरीका का पेश किया, इस तरीके में यह प्रावधान था कि अब किसी लापरवाह पापी या भाई के बारे में निर्णायक कार्रवाई करने का अधिकार विश्वासियों के पास था और वो भी इस आश्वासन के साथ कि परमप्रधान ईश्वर स्वयं उनके निर्णयों का समर्थन करता है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव था जो सीधे सीधे इस बात का सबूत था कि प्रभु यीशु मसीह प्रत्येक विश्वासियों को याजक और न्यायी के रूप में देख रहा है। जबकि पुराने नियम में इस तरह के अधिकार केवल याजकों, राजाओं और न्यायाधीशों के एक विशेष वर्ग के लिए आरक्षित थे।
अब यह सोचने लायक बात है कि जब मसीह ने हमें एक नया आदेश दिया तो हम बार बार पुराने नियम के तरीकों पर क्यों लौटते हैं। इस शिक्षा में, यीशु ने दो या तीन व्यक्तियों को निर्णय लेने का काम सौंपा है, अब उन्हें उरीम और तुम्मिम की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इसके बजाय पवित्रशास्त्र की रोशनी में पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन पर निर्भर रहना है। प्रभु यीशु मसीह आश्वासन देता है कि पवित्र आत्मा की अगुवाई में सबकी सहमती से लिए गए निर्णय स्वर्ग के द्वारा ही प्रस्तावित होते हैं। इस तरह के अधिकार के लिए जिम्मेदारी की गहरी भावना, आत्मिक समझ, न्याय और बहाली के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है।
अब हमें इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि ईश्वर की उपस्थिति दो या तीन व्यक्तियों के जमा होने पर ही आयेगी ऐसा नहीं है। वो सनातन ईश्वर जो सृष्टि से पहले अस्तित्व में था और मनुष्यों की रचना से पहले ही गहरे जल के ऊपर मंडराता था, वह मानवीय परिस्थितियों या स्थानों से बंधा नहीं है। जबकि प्रभु यीशु मसीह हमें यहां समझाना चाह रहे थे कि हमारे आध्यात्मिक अधिकार हमारी एकता से सीधे सीधे जुड़े है, वह हमें यकीन दिलवाना चाह रहे थे कि जब हम सब किसी एक बात के लिए सहमति में एक साथ परमेश्वर के पास आते है , तो ईश्वर की उपस्थिति हमारे कार्यों को सफल और सशक्त बनाती है। ठीक ऐसा ही तो उन 120 लोगों के साथ हुआ था जो पिन्तेकुस्त के दिन एक साथ प्रार्थना कर रहे थे और उन सभी पर पवित्र आत्मा उतर गया।
लेकिन इस अद्भुत सत्य को की "जहां दो या तीन मेरे नाम से जमा होगे, मैं वह उपस्थित हो जाऊंगा " हमें हल्के में नहीं लेना चाहिए और एक औपचारिकता के रूप में हमें परमेश्वर के भवन में जमा नहीं होना चाहिए। ऐसा करने से यीशु की इस महान प्रतिज्ञा का महत्व कम हो जाएगा, और एक अदभुत प्रतिज्ञा केवल एक ढोंग में में बदल जाएगी। बजाय इसके , हमें इस वायदे को पूरी सजगता से अपनाना चहिए, हमें विश्वास के साथ संगती करनी चाहिए सच्चे मन और विवेक के साथ पवित्र आत्मा पर निर्भर रहना चाहिए यह जानकर हम मसीह की कलीसिया में न्याय, मेल-मिलाप और पुनर्स्थापना के लिए इकट्ठा हुए है।
यीशु लगातार इसी एक शाश्वत सिद्धांत को कायम रखते हैं जो पूरे पवित्र शास्त्र में देखा जा सकता है: परमेश्वर अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अपने लोगों के बीच एकता चाहता है। अदन के बगीचे की सद्भावना से लेकर बेबीलोन के मीनार पर विभाजन तक, भजन 133 की सुंदरता और अब मत्ती 18 में, लगातार संदेश स्पष्ट और एक ही है - एकता आवश्यक है।
जब दो या तीन लोग प्रार्थना करने, परमेश्वर की इच्छा जानने और आध्यात्मिक अधिकार का प्रयोग करने के लिए एक साथ इकट्ठे होते हैं, तो वे धरती पर स्वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। उनकी यही आपसी सहमती, एकता प्रभु की प्रार्थना के सार को दर्शाता है: "तेरा राज्य आए, तेरी इच्छा पूरी हो, जैसे स्वर्ग में होती है, वैसे ही धरती पर भी हो।" यह दिव्य भागीदारी ही स्वर्ग की शक्ति और उद्देश्यों को हमारी सांसारिक परिस्थितियों में काम करने के लिए आमंत्रित करती है, और यही तो उसके लोगों के लिए परमेश्वर की योजना है ।



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